बुधवार, 14 जून 2017

दरिद्र नारायण - राजा और दरिद्र की कहानी हिंदी में

प्राचीन काल में प्रायः राजाओ का साशन होता था। कहने का मतलब हुआ की देश में राजतन्त्र का बोलबाला था। राजा प्रजा का पालनहार कहलाता था, मतलब की प्रजा को किस प्रकार स्वतंत्र या गुलामी में रखा जाए, यह सब राजा पर निर्भर करता था। राजा की प्रविर्ती, स्वभाव या व्यवहार पर ही प्रजा का जीवन व्यतीत होता था। अभी भी जहाँ राजतन्त्र चल रहा है वहां ऐसी ही स्तिथि रहता है। परन्तु अब बहुत ही कम ज़गह पर राजतन्त्र चल रहा है। राजतन्त्र में विसेश्कर प्रजा को सताया ही जाता था, परन्तु कुछ ही राजा ऐसा होते थे जो अपनी प्रजा को पुत्र के सामान मानती थी और पालन करती थी, मतलब हर प्रकार से अपनी प्रजा के सुख-शांति में ही अपना सुख, अपनी शांति, गरिमा एवम् शान वान तथा कल्याण समझता था।
अपने ही देश में कई ऐसे भी राजा हुए हैं जो अपने अच्छे व्यवहार, प्रकर्ति, स्वभाव, लक्षण से प्रजा पलक के रूप में दुनियां में प्रशिद्ध हैं। परन्तु ज्यदातर राजा तो प्रजा का शोषण करने में ही अपनी शान और मर्यादा समझते थे, तो ऐसे राजा को इश्वर इस प्रकार दंड देते थे की उनको पता भी नहीं चलता था की उनके आत्मिक सुख शांति या पारिवारिक अशांति क्यों रहता था। 

"दरिद्र नारायण - राजा और दरिद्र की कहानी हिंदी में"

इस प्रकार की प्रकृति, स्वभाव और व्यवहार वाले राजा की एक कहानी के बारे में मैं आप सभी को अवगत करना चाहूँगा। 
यह कहानी उत्तर प्रदेश, भारत के राजा की कहानी हैं। राजा राधिका रमण अपने राज्य उत्तर प्रदेश में जाने माने राजाओ में से एक थे। राजा बहुत बड़े छेत्र होने के कारन हर प्रकार से और धन धान्य से परिपूर्ण था। किसी तरह की कोई कमी न था। परन्तु राजा हमेशा परेशानी एवं दुखों से घिरा रहता था। उनको अक्सर ऐसा लगता था की उनका सर दर्द से फटा जा रहा हो। काफी बेचनी और अशांति में उनका जीवन व्यतीत हो रहा था। राजा अनेको तीर्थ स्थान एवं देवी देवता के पास जाकर उनके चरणों में सर टेकते थे और फिर भी उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिलती थी। कहने का अर्थ है की लाखों मन सोना चांदी गला देने पर भी मन नहीं लगता था। इनका कारन था की जब राजा तीर्थ स्थान को निकलते थे तो राजा का रथ के आगे सिपाही सभी डंडे की चोट से काले कलुठे कंगाल को मार मार कर हटवा देते थे और अपना रथ आगे निकलवा लेते थे। राजा मंदिर में जाकर सर टेकते और लाखों रुपयों का प्रशाद का चढ़ावा करते थे। पुनः लौटते समय राजा देखता था की वही काला कलुठा कंगाल रास्ता रोके हुए आराध्य के रूप में खरा है। पुनः सिपाही सब उन काला कलुठा कंगाल को डंडे के चोट से तितर वितर कर देते थे।
अंत में राजा एक बार सोमनाथ मंदिर में सर टेकने गये थे। वहां के पुजारी से जब राजा अपनी सभी आप बीती कहानी सुनाई तो उन्होंने राजा को सलाह दिया की उन दरिद्र गरीबों एवं तन्गिओं में ही नारायण का स्वरुप देखा जाता हैं। जिसे आप बेकार एवं बेबस लोगों पर यानि काले कलुठे कंगाल पर सिपहिओं से डंडे की चोट से भगा दिया करते हैं, वही आपकी सुख, शांति के भंग होने का कारन है। दरिद्रों में ही तो नारायण का वास होता है। यदि आप अपनी प्रजा को सुख एवं शांति देते हैं तो इस प्रकार आपकी प्रजा प्रसन्न और खुशहाल होगा तो आपकी अशांति स्वयं शांति में बदल जएगी। जब आप दरिद्र ब्राह्मण और भिखारिओं को गले लगाओगे तो आपकी सारी कठनाई और असुभिधा समाप्त हो जयगी। अर्थात दरिद्र ही नारायण होता है, उनकी सेवा अत्यंत आवश्यक हैं। 
राजा मंदिर से वापस होते ही जब उनसब बातों का अपने ऊपर चरितार्थ किया तो उन्होंने कुछ ही दिनों में प्रत्यक्ष देखा की उनकी सारी परेशानी एवं सर का दर्द समाप्त हो गया है। अब, राजा सुख शांति से अपना जीवन व्यतीत करने लगे और प्रजा का पुत्रवत प्रजापालक बनकर राज चलाने लगे। 

समाप्त - दरिद्र नारायण (राजा और दरिद्र की कहानी)

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